स्मृतिशेष
महादेवी वर्मा हिंदी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवियि़़त्रयों में से एक थी और वे एक स्वतंत्रता सेनानी भी थी। वे हिदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिंदी की सबसे सशक्त कवियित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीराबाई के नाम से भी जाना जाता है। उनके गड्ढ को एकमात्र हिंदी साहित्य माना जाता है। इनका जन्म 1907 में फारूखाबाद के धार्मिक और संपन्न परिवार में हुआ था। पिता वकील थे और माता करूणा से भरी सद्भदय गृहस्थ नारी थीं। इनकी शिक्षा -दीक्षा जबलपुर और इलाहाबाद में हुई थी। संस्कृत-साहित्य में एम ए करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी। महादेवी जी संस्कृत के अलावा हिंदी, अंग्रेजी और बंगला की भी जानकार थी। यही नहीं चित्रकला और संगीत में भी उन्हें महारत हासिल था। उनके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर कवि निराला ने उन्हे ’हिन्दी के विशाल मंदिर की सरस्वती भी कहा है।’उन्होंने स्वतं़त्रता के पहले और बाद का भी भारत देखा था। शिक्षा जगत में कार्य करने के साथ-साथ समाज और साहित्य-सेवा भी आरंभ से करती रहीं। इसके लिए इन्होंने कुछ सामाजिक और साहित्यक संस्थाएं भी स्थापित कीं। वे संस्थाएं आज भी स्थापित हैं और इनकी यशोगाथा कह रही हैं। महादेवी जी का विवाह छोटी आयु में ही हो गया था, पर घर-गृहस्थी के कार्यों में जन्म से ही रूचि न होने के कारण विवाह संबध स्वेच्छा से त्याग दिया। और साहित्य,समाज और शिक्षा जगत की सेवा में जीवन समर्पित कर दिया। बचपन से ही उन्हें कविताएं लिखने का शौक था। लेकिन उनकी छुपी हुई प्रतिभा को सुभद्रा कुमारी चौहान ने उभारा और उन्हें कविताएं लिखने को प्रेरित भी किया। ’मेरे बचपन के दिन’ किताब उन्होंने उस वक्त लिखा जब लोग बेटियों को बोझ समझते थे। वे अपने आप को खुशकिस्मत समझती थीं की वो एक पढे लिखे घर में जन्म लीं। जहां उन्हें पढने का पूरा मौका मिला। कवियत्री बनने का पूरा श्रेय महादेवी जी अपनी माता को देती हैं। क्योंकि उन्होंने ही उन्हें हमेशा अच्छी कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया, और हमेशा हिंदी भाषा में उनकी रूचि बढायी। महादेवी वर्मा ने सात साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। उनके काव्य का मूल स्वर दुख और पीडा है, क्योंकि उन्हें सुख के मुकाबले दुख ज्यादा प्रिय रहा। उनकी रचनाओं की खास बात यह है कि विषाद का वह भाव नहीं है, जो व्यक्ति को कुंठित कर देता है, बल्कि संयम और त्याग की प्रबल भावना है। वह कवयित्री होने के साथ एक विशिष्ट गड्ढकार भी थीं। उनके काव्य संग्रहों में नीहार, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा और यामा शामिल हैं। गड्ढ में अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं और पथ के साथी उल्लेखनीय है। उनके पुनर्मुद्रित संकलन में स्मारिका, स्मृति चित्र संभाषण, संचयन दृष्बिध और निबंध में श्रृंखला की कडि.यां, विवेचनात्कम गड्ढ, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध शामिल हैं। गिल्लू उनका कहानी संग्रह है। उन्होंने बाल कथाएं भी लिखीं। जीवन भर की उपब्धियों के लिए महादेवी जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। और भारत का तीसरा और नगारिकत्व का दूसरा सबसे बड.ा सम्मान 1956 में पद्रम भूषण और 1988 में पदम्र विभूषण से भी उन्हें सम्मानित किया गया। महादेवी जी के साहित्यक योगदान के कारण ही इन्हें छायावाद का मूल स्तंभ कहा गया।
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