अंग्रेजों की शोषण नीति और परतंत्रता से भारत वर्ष को मुक्त कराने में अनेक महापुरूषों ने योगदान दिया था। इन्हीं महापुरूषों में एक नाम है भगवान बिरसा मुंडा का। इन्होंने ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ ‘ राज अर्थात हमारे देश में हमारा शासन का नारा दे कर भारत वर्ष के छोटानागपुर क्षे़त्र के अदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की हुकुमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके, सर नहीं झुकाया बल्कि जल, जंगल और जमीन के हक के लिए अंग्रेजों के खिलाफ ‘उलगुलान‘ अर्थात क्रांति का आह्रवाहन किया। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा का जन्म 15 नवंबर 1874 को झारखंड प्रदेश के चालकद ग्राम में हुआ था। बिरसा मुंडा का पैतृक गांव उलिहातू था। सन 1886 को जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के उच्च विद्यालय में बिरसा दाउद के नाम से बिरसा मुंडा का दाखिला करवाया गया, क्योंकि इनके माता पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया था।े बिरसा मुंडा को अपनी भूमि संस्कृति पर गहरा लगाव था। वे आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे। तथा वाद-विवाद में वे हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन की वकालत करते थे। 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न सिर्फ दबा दिया गया, बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी आलोचना की गई। इस घटना का परिणाम यह हुआ कि उनके इस बगावत के बाद उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। 1886-90 तक बिरसा चाईबासा मिशन के साथ जुड.े रहे। यह उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था। इसके बाद वे वैष्णों भक्त आनंद पांडे के प्रभाव में आए और उन्होंने हिंदू धर्म की शिक्षा ली। रामायण, महाभारत और अन्य हिंदू महाकाव्य पढ.े। बिरसा मुंडा का संथाल विद्रोह, चुंआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड.ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख कर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठीं। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वे लायेंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ उलगुलान का आह्रवाहन करने के साथ ही शोषकों , ठेकेदारों और अंग्रेजी चाटुकारों को मार भगाने का आह्रवाहन भी किया। पुलिस को भगाने वाली घटना से अदिवासियों का विश्वास बिरसा मुंडा पर होने लगा था कि बिरसा मुंडा भगवान के दूत के रूप में शोषकों से मुक्ति के लिए स्वर्ग से यहां पहुंचे हैं। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अब दिकुओं का राज समाप्त हो जाएगा एवं ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ राज कायम होगा। इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895 को 20 सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा को काफी मशक्कत के साथ गिरफतार किया गया। बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के लिए 50 रूपए र्जुमाना तथा दो वर्ष कैद की सजा दी गई। 30 नवंबर 1897 को बिरसा जेल से बाहर आए। और 24 दिसबंर 1899 को उलगुलान पुनः प्रारंभ किया गया। महज 500 रूपए के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांव के व्यक्तियों ने बिरसा को गिरफतार करवा दिया। 9 जून 1900 को जेल में उन्हें जहर देने के कारण उनकी मौत हो गई। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदल कर एक नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सुत्रपात किया। काले कानून को चुनौति देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा सही मयाने में पराक्रम सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य थे।
तत्कालीन युग के एकलव्य भगवान बिरसा
अंग्रेजों की शोषण नीति और परतंत्रता से भारत वर्ष को मुक्त कराने में अनेक महापुरूषों ने योगदान दिया था। इन्हीं महापुरूषों में एक नाम है भगवान बिरसा मुंडा का। इन्होंने ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ ‘ राज अर्थात हमारे देश में हमारा शासन का नारा दे कर भारत वर्ष के छोटानागपुर क्षे़त्र के अदिवासी नेता भगवान बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों की हुकुमत के सामने कभी घुटने नहीं टेके, सर नहीं झुकाया बल्कि जल, जंगल और जमीन के हक के लिए अंग्रेजों के खिलाफ ‘उलगुलान‘ अर्थात क्रांति का आह्रवाहन किया। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा का जन्म 15 नवंबर 1874 को झारखंड प्रदेश के चालकद ग्राम में हुआ था। बिरसा मुंडा का पैतृक गांव उलिहातू था। सन 1886 को जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के उच्च विद्यालय में बिरसा दाउद के नाम से बिरसा मुंडा का दाखिला करवाया गया, क्योंकि इनके माता पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया था।े बिरसा मुंडा को अपनी भूमि संस्कृति पर गहरा लगाव था। वे आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे। तथा वाद-विवाद में वे हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन की वकालत करते थे। 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न सिर्फ दबा दिया गया, बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी आलोचना की गई। इस घटना का परिणाम यह हुआ कि उनके इस बगावत के बाद उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। 1886-90 तक बिरसा चाईबासा मिशन के साथ जुड.े रहे। यह उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था। इसके बाद वे वैष्णों भक्त आनंद पांडे के प्रभाव में आए और उन्होंने हिंदू धर्म की शिक्षा ली। रामायण, महाभारत और अन्य हिंदू महाकाव्य पढ.े। बिरसा मुंडा का संथाल विद्रोह, चुंआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड.ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख कर उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठीं। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वे लायेंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ उलगुलान का आह्रवाहन करने के साथ ही शोषकों , ठेकेदारों और अंग्रेजी चाटुकारों को मार भगाने का आह्रवाहन भी किया। पुलिस को भगाने वाली घटना से अदिवासियों का विश्वास बिरसा मुंडा पर होने लगा था कि बिरसा मुंडा भगवान के दूत के रूप में शोषकों से मुक्ति के लिए स्वर्ग से यहां पहुंचे हैं। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अब दिकुओं का राज समाप्त हो जाएगा एवं ‘अबुआ दिशोम रे अबुआ राज कायम होगा। इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895 को 20 सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा को काफी मशक्कत के साथ गिरफतार किया गया। बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के लिए 50 रूपए र्जुमाना तथा दो वर्ष कैद की सजा दी गई। 30 नवंबर 1897 को बिरसा जेल से बाहर आए। और 24 दिसबंर 1899 को उलगुलान पुनः प्रारंभ किया गया। महज 500 रूपए के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांव के व्यक्तियों ने बिरसा को गिरफतार करवा दिया। 9 जून 1900 को जेल में उन्हें जहर देने के कारण उनकी मौत हो गई। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने भारत के झारखंड में अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदल कर एक नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सुत्रपात किया। काले कानून को चुनौति देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा सही मयाने में पराक्रम सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य थे।
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