सहज, सरल, पारदर्शी और धुनी व्यक्तित्व के धनी, धरती, जनता और श्रम के गीत गाने वाले संवेदनशील कवि नागार्जुन साहित्यक और राजनीति दोनों में समान रूप से रूचि रखने वाले प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार थे। इनका जन्म 30 जून 1911 को सतलखा जिला दरभंगा ;बिहारद्ध में हुआ था। इनके बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। नागार्जुन ने 1945 ई के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में कदम रखा। नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। लेकिन हिन्दी साहित्य में उन्होंने ‘नागार्जुन‘ तथा मैथिली में ‘यात्री‘ उपनाम से रचनाओं का सृजन किया। फकीरी और बेबाकी इनकी पहचान थी। बाबा नागार्जुन ने हिंदी और मैथिली में उपन्यास, लघु कहानियां, साहित्यिक जीवनी और यात्रा वृृतांत भी लिखा। इनकी रचनाएं सीधे लागों से संवाद करती थी इसलिए इन्हें जनकवि कहा गया। जन संर्घष में इनकी अडिग आस्था थी। जनता से लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हुए हैं। संवाद शैली बेहद ठेठ और सीधा चोट करने वाले होते थे। इन्होंने प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की थी, लेकिन हिंदी, बंगला और संस्कृत में कविताएं लिखते थे। मैथिली भाषा से तो इन्हें बइुत प्रेम था। इतनी उत्सुकता थी कि वे मैथिली भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए गांव-गांव साइकिल में सत्तू और चूड.ा बांध कर जाते थे। इस बात के लिए इन्हें किसी चीज की आशा भी नहीं थी। वे कहते थे कि मातृभाषा की सेवा के बदले क्या दाम लेना उचित है। नागार्जुन के लिए कविता एक साहित्यिक कर्म ही नहीं था, बल्कि वह एक व्यापक सामाजिक कार्य भी था। उन्हें ऐतिहासिक किताब पत्रहीन नग्न गाछ‘ के लिए 1969 में साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित किया गया। 1994 में साहित्य के क्षेत्र में अनुपम योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी फेल्लोशिप से भी सम्मानित किया गया। उनके जीवन और उनकी रचनाएं दोनों में बेहद समानता देखने को मिलती है। नागार्जुन अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह अपनी कविताओं के माध्यम से करते थे। उनकी कविताएं भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीति में विद्रमान विकृतियों और विरोधाभासों को पहचान कर न सिर्फ वाणी प्रदान करती है बल्कि उनकी तीखी आलोचना भी करती है। और सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों के विरूद्ध संर्घष के लिए एक हथियार के रूप में काम करती है। उनकी रचनाएं असहनीय स्थितियों पर टिप्पणी कर सवाल उठाती हैं। व्यंग्य कर गैरजिम्मेदारों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास भी करवाती हैं। जीवन की सच्चाई को पूरी तल्खी के साथ अपनी रचनओं में उतारते थे नागार्जुन। ‘आकाल और उसके बाद‘ कविता मेेेेेेेेेेे उन्होंने जीवन की उस सच्चाई से रूबरू करवाया है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक आम आदमी की व्यथा का वर्णन करते हुए वे बतलाते हैं कि लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। वे दाने- दाने को मोहताज हो गए हैैं। जिसे रोज दो जून की रोटी मिलती थी। उनके घरों में आज चूल्हा नहीं जला है। और इन सब में पशु-पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं। उनकी दूसरी कविता ‘ आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी‘ ब्रिटिश महारानी क्वीन एलिजाबेथ के भारत आगमन पर भारत सरकार द्वारा भव्य स्वागत करने पर तंज कसती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नागार्जुन दुख और दुखियों के कवि थे।
दुख और दुखियों के कवि बाबा नागार्जुन
सहज, सरल, पारदर्शी और धुनी व्यक्तित्व के धनी, धरती, जनता और श्रम के गीत गाने वाले संवेदनशील कवि नागार्जुन साहित्यक और राजनीति दोनों में समान रूप से रूचि रखने वाले प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार थे। इनका जन्म 30 जून 1911 को सतलखा जिला दरभंगा ;बिहारद्ध में हुआ था। इनके बचपन का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। नागार्जुन ने 1945 ई के आसपास साहित्य सेवा के क्षेत्र में कदम रखा। नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। लेकिन हिन्दी साहित्य में उन्होंने ‘नागार्जुन‘ तथा मैथिली में ‘यात्री‘ उपनाम से रचनाओं का सृजन किया। फकीरी और बेबाकी इनकी पहचान थी। बाबा नागार्जुन ने हिंदी और मैथिली में उपन्यास, लघु कहानियां, साहित्यिक जीवनी और यात्रा वृृतांत भी लिखा। इनकी रचनाएं सीधे लागों से संवाद करती थी इसलिए इन्हें जनकवि कहा गया। जन संर्घष में इनकी अडिग आस्था थी। जनता से लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हुए हैं। संवाद शैली बेहद ठेठ और सीधा चोट करने वाले होते थे। इन्होंने प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की थी, लेकिन हिंदी, बंगला और संस्कृत में कविताएं लिखते थे। मैथिली भाषा से तो इन्हें बइुत प्रेम था। इतनी उत्सुकता थी कि वे मैथिली भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए गांव-गांव साइकिल में सत्तू और चूड.ा बांध कर जाते थे। इस बात के लिए इन्हें किसी चीज की आशा भी नहीं थी। वे कहते थे कि मातृभाषा की सेवा के बदले क्या दाम लेना उचित है। नागार्जुन के लिए कविता एक साहित्यिक कर्म ही नहीं था, बल्कि वह एक व्यापक सामाजिक कार्य भी था। उन्हें ऐतिहासिक किताब पत्रहीन नग्न गाछ‘ के लिए 1969 में साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित किया गया। 1994 में साहित्य के क्षेत्र में अनुपम योगदान के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी फेल्लोशिप से भी सम्मानित किया गया। उनके जीवन और उनकी रचनाएं दोनों में बेहद समानता देखने को मिलती है। नागार्जुन अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वाह अपनी कविताओं के माध्यम से करते थे। उनकी कविताएं भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीति में विद्रमान विकृतियों और विरोधाभासों को पहचान कर न सिर्फ वाणी प्रदान करती है बल्कि उनकी तीखी आलोचना भी करती है। और सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों के विरूद्ध संर्घष के लिए एक हथियार के रूप में काम करती है। उनकी रचनाएं असहनीय स्थितियों पर टिप्पणी कर सवाल उठाती हैं। व्यंग्य कर गैरजिम्मेदारों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास भी करवाती हैं। जीवन की सच्चाई को पूरी तल्खी के साथ अपनी रचनओं में उतारते थे नागार्जुन। ‘आकाल और उसके बाद‘ कविता मेेेेेेेेेेे उन्होंने जीवन की उस सच्चाई से रूबरू करवाया है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। एक आम आदमी की व्यथा का वर्णन करते हुए वे बतलाते हैं कि लोगों का जीना दुश्वार हो गया है। वे दाने- दाने को मोहताज हो गए हैैं। जिसे रोज दो जून की रोटी मिलती थी। उनके घरों में आज चूल्हा नहीं जला है। और इन सब में पशु-पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं। उनकी दूसरी कविता ‘ आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी‘ ब्रिटिश महारानी क्वीन एलिजाबेथ के भारत आगमन पर भारत सरकार द्वारा भव्य स्वागत करने पर तंज कसती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नागार्जुन दुख और दुखियों के कवि थे।
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