भारतीय संस्कृति को विश्व
स्तर पर पहचान
दिलाने वाले महापुरूष
स्वामी विवेकानंद जी केवल
संत ही नहीं
बल्कि एक देशभक्त,
वक्ता, विचारक, लेखक एवं
मानव प्रेमी थे।
स्वामी जी युवाओं
के रोल मॉडल
हैं, इन्होंने अपने
जीवनकाल में योग
और तपस्या की।
और लोगों को
इसके महत्व के
बारे में बताया।
विदेश में जा
कर भारतीय संस्कृति
का प्रचार-प्रसार
कर स्वामी जी
ने यह बताया
कि वे अपनी
मातृभूमि के प्रति
कितना स्नेह रखते
हैं। पूरी दुनिया
को वेदांत की
जानकारी से रूबरू
करवाने वाले स्वामी
विवेकानंद का जन्म
12 जनवरी 1863 को हुआ
था। बचपन में
इनकी माताजी ने
इनका नाम नरेंद्र
रखा था। बचपन
से ही नरेंद्र
कुशाग्र बुद्धि के थे।
और इतने नटखट
की इनको किसी
की बातों का
कोई भी भय
नहीं होता था।
इसलिए इनकी माता
जी इन्हें शांत
रखने के लिए
रामायण और महाभारत
के किस्से सुनाया
करती थीं। लेकिन
इनके पिताजी पूरे
पाश्चातय शैली के
सर्मथक थे। वे
नरेंद्र को भी
अंग्रेजी की शिक्षा
दिला कर कोई
अफसर बनाना चाहते
थे। लेकिन नियती
ने तो किसी
खास प्रयोजन के
लिए उन्हें धरती
पर अवतरित किया
था। व्यायाम,
कुश्ती, क्रिकेट आदि में
भी स्वामीजी की
विशेष रूचि थी।
मित्रों के साथ
हास-परिहास में
भी वे आगे
रहते थे। उनके
गुणों से प्रभावित
हो कर जनरल
असेंबली कालेज के अध्यक्ष
विलयम हेस्टी का
कहना था कि
नरंेद्र के चरित्र
में जो भी
महान है, वह
उनकी सुशिक्षित एवं
विचारशील माता की
शिक्षा का परिणाम
है। बचपन से
ही वे परमात्मा
को पाने की
चाह में बेचैन
रहते थे। डेकार्ट
का अंहवाद, डार्विन
का विकासवाद, स्पेंसर
के अदैतवाद को
सुनकर नरेंद्र सत्य
को पाने के
लिए व्याकुल हो
जाते थे। अपने
इसी उद्रदेश्य की
पूर्ति के लिए
वे ब्रöमसमाज
में गये किंतु
वहां भी उनको
शांति नहीं मिली।
उसके बाद रामकृष्ण
परमहंस की तारीफ
सुन कर वे
उनके पास भी
गए किंतु वे
उनके विचारों से
प्रभावित हो कर
उन्हें अपना गुरू
मान लिए। और
परमहंस की कृपा
से ही उन्हें
आत्साक्षात्कार की प्राप्ति
हुई। लगभग 25 वर्ष
की आयु में
वे गेरूवां वस्त्र
धारण कर संयासी
बन गए और
विश्व भ्रमण पर
पैदल ही निकल
पड.े। अभाव
भरी जिंदगी में
भी नरेंद्र बड.े अतिथि-सेवी थे।
स्वयं भूखे रहकर
अतिथियों को भोजन
करवाते थे। स्वयं
घर से बाहर
बारिश में रातभर
भीगते- ठिठुरते रहते, लेकिन
अतिथियों को अपने
बिस्तर पर सुलाया
करते थे। ऐसी
ही बातें स्वामीजी
को औरों से
अलग करती थीं।
1893 में अमेरिका के शिकागो
में विश्व धर्म
परिषद्र हो रही
थी, वहां स्वामी
विवेकानंदजी भारत के
प्रतिनिधी के रूप
में शामिल होने
गए थे। लेकिन
उस वक्त युरोप
और अमेरिका के
लोग पराधीन भारतवासियों
को बहुत ही
हीन दृष्टि से
देखते थे। इसलिए
वहां के लोगों
ने काफी प्रयास
किया कि स्वामी
जी को सभा
में बोलने का
मौका न मिले।
लेकिन एक अमेरिकन
प्रोफेसर की मदद
के जरिए उन्हें
बोलने का मौका
मिला। उस सभा
में स्वामी जी
के विचार सुन
कर वहां के
सारे विद्वान आर्श्चचकित
रह गए। और
स्वामीजी का वहां
बहुत ही स्वागत
किया गया। लगभग
तीन वर्षों तक
वे अमेरिका में
रहे और वहां
के लोगों को
भारतीय तत्वज्ञान की अद्रभुत
ज्योति प्रदान करते रहे।
इसके बाद अनेक
अमेरिकन विद्वानों ने स्वामीजी
का शिष्यत्व ग्रहण
किया और अमेरिका
में उन्होंने रामकृष्ण
मिशन की अनेक
शाखाएं भी स्थापित
कीं। स्वामीजी स्वभाव
से इतने सीधे
और सरल थे
कि वे सदैव
अपने को गरीबों
का सेवक कहते
थे। भारत के
गौरव को देश
देशांतरों में उज्ज्वल
करने का उन्होंने
सदैव प्रयत्न किया।
स्वामीजी केवल संत
ही नहीं बल्कि
एक विचारक, लेखक
एवं मानव प्रेमी
भी थे। 1899 में
कोलकाता में भीषण
प्लेग फैला हुआ
था। स्वामीजी अस्वस्थ
होने के बावजूद
तन मन धन
से महामारी से
ग्रसित लोगों की सहायता
करके इंसानियत की
मिसाल दी। स्वामीजी
ने दूसरों की
सेवा और परोपकार
करने के उद्रेश्य
से 1 मई 1897 को
रामकृष्ण मिशन की
स्थापना की। यह
संस्था दूसरों की सेवा
और परोपकार को
कर्मयोग मनाता है। और
यह सिद्धांत हिंदूत्व
में प्रतिष्ठित एक
महंत्वपूर्ण सिद्धांत है। स्वामीजी
के मन में
राष्ट´प्रेम कूट-कूट कर
भरा हुआ था।
स्वामी जी इतने
संवेदनशील थे कि
भारत माता की
गुलामी और उसके
तिरस्कार को देखकर
उनका मन व्याकुल
हो जाता था।
उन्नीसवीं शताब्दी में विदेशी
शासन की दासता
से दुखी और
शोषित हो रही
जनता को स्वामीजी
ने अपनी
ओजस्व वाणी से
उनके मन में
स्वतंत्रता का श्ंाखनाद
किया। स्वामीजी
सकारात्मकता के प्रतीक
थे। अपने 39 वर्ष
के संक्षिप्त जीवनकाल
में स्वामी जी
ने जो अद्रभूत
कार्य किये हैं,
वे आने वाली
पीढि.यों का
सदैव मार्गदर्शन करते
रहेंगे।
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