एक खुली किताब हरिवंश राय बच्चन

एक खुली किताबः  हरिवंश राय बच्चन

हरिवंश राय बच्चन के नाम लेने मात्र से हमारे मानस पटल पर उनकी लिखी चार खंडों की आत्मकथा  उभरती है। बेबाकी, साहस और सदभावना के साथ उन्होंने अपने जीवन की सारी घटनाओं को दुनिया के सामने रखा। बच्चनजी की आत्मकथा लोगों के लिए एक प्रेरणा बन गयी। बच्चनजी की कालजयी कृति मधुशाला तो जिंदगी से आत्मसाक्षात्कार करवाती हैं। उनकी कविताएं यर्थाथ को बयां करते हुए जीवन दर्शन का पाठ भी पढ. जाती हैं। 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ. में बच्चनजी का जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था। बचपन में हरिवंश राय बच्चन की माता सरस्वती देवी इन्हें प्यार से बच्चन कहती थी। जिसका अर्थ बच्चा होता है, बाद में यही उनका उपनाम बन गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में बच्चनजी ने एम. किया। उसके बाद कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्रस की कविताओं में शोध कर अपनी पीएचडी पूरी की। बाद में बच्चनजी भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ भी रहे। और राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी थे।

             

   19 वर्ष की आयु में इनका पहला विवाह श्यामा देवी से हुआ, जो महज 14 वर्ष की थीं। कुछ सालों के बाद श्यामा देवी की मृत्यु टी.बी से हो गयी। इस घटना के बाद बच्चनजी टूट-फूट से गए थे। उनके मन की उधेड.बुन और उनकी मन की पीड. उनकी आत्मकथा के पहले खंडक्या भूलूं क्या याद करूं’  देखने को मिलती है। इस किताब में बच्चनजी ने अपनी जिंदगी के उन अनछुए पहलुओं के बारे में लोगों को अवगत कराया , जिसके कारण वे अंदर ही अंदर घुटते रहे थे। जिंदगी से उन्हें काफी शिकायतें थीं लेकिन उन्होंने उस खराब दौर से अपने आप को एक मजबूत इंसान के रूप में साबित किया। और अपनी  जिंदगी की एक नई शुरूआत की। अपनी जीवनी के दूसरे अध्यायनीड. का निर्माण फिरमें बच्चनजी ने तेजी से अपनी मुलाकात के बारे में लिखा। प्रेमा ने बच्चनजी को तेजी से मिलवाया  रंगमंच और गायन से जुजो. हुई थीं। तेजी जी को देख कर बच्चन जी ने एक तुकबंदी भी लिख डाली। उन्होंने ने लिखा कि सौंर्दय देख कर मन में शंका हो रही है, कहीं मुझे फंसाने के लिए प्रकृति ने फिर से कोई जाल तो नहीं बिछाया है। जाल बिछ चूका था और बच्चनजी उस करूणा की जाल में फंस चुके थे। अपने जीवन के कटू अनुभव के कारण वे तेजी जी से मिलने और आगे की जीवन को लेकर अशंकित थे। इसलिए उन्होंने एक कविता के माध्यम से अपनी मन की व्यथा को तेजी जी के समक्ष रखा और परिणाम यह हुआ कि वे दोनों एक दूसरे के सुख दुःख के साझेदारी बन कर साथ जीवन यापन का निर्णय ले लिया। और बच्चन जी ने अपने मन की भावों को तुकबंदी कर कहा कि भय बिनु होई प्रीति का क्या कोई रहस्यपूर्ण अर्थ है? अर्थात जिस सौंदर्य से वे अबतक डर रहे थे वही सौंदर्य के मोहपाश में वे फंस चुके थे। बसेरे से दूर बच्चनजी की तीसरे खंड की आत्मकथा है। इसमें उन्होंने अपने जीवन की उस अवधि की कहानी सुनाई है, जब उन्होंने अपने देश-नगर, घर -परिवार से दूर कैम्ब्रिज में रहकर विलियम बटलर ईस्ट्र के साहित्य पर शोध कार्य किया। इस खण्ड का प्रारंभ उन्होंने अंग्रेजी विभाग में अपने अध्यापन कार्य, साथी प्रवक्ताओं के परिचय के साथ किया था। और अपने संघर्ष के जीवन का उल्लेख भी किया था। बच्चनजी की चौथी आत्मकथा थी दशद्वार से सोपान तक जिसमें उन्होंने दो काल खंडों का वर्णन किया है। जिसके प्रथम कालखंड मं 1956 और दूसरे काल खंड में 1983 तक की घटनाओं का वर्णन किया गया है। आत्मकथा के प्रारंभ में ही बच्चनजी ने दशद्वार और सोपान का अर्थ स्पष्ट किया है। इलाहाबाद के घर में दस दरवाजे थे और दिल्ली वाले घर का नाम सोपान था। इस आखरी आत्मकथा के खंड में बच्चनजी ने इलाहाबाद से लेकर दिल्ली तक के अपने जीवन के सफर के बारे में उल्लेख किया है। बच्चनजी ने अपनी सारी स्मृतियों को शब्दों में ढाल कर पाठकों के सामने पूरी ईमानदारी के साथ रखा है। बच्चनजी ने अपनी जीवनी को एक खुली किताब के रूप में लोगों के समक्ष रखा। जिसमें संघर्ष ,सुख दुख और खुशियां इन सब का बहुत ही खुबसूरती के साथ वर्णन किया गया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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Milan Tomic

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