बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार पंडित रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम है, जिये कभी भुलाया नहीं जा सकता। हिंदी साहित्य को एक नया और मजबूत रूप देने वाले शुक्ल जी का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। रामचंद्र शुक्ल जी हिंदी के आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि भी थे। उन्होंने हिंदी को उस दौर में पुष्पित और पल्लवित किया था जब देश पर विदेशी भाषा का प्रभाव था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद, हिंदी भाषा और साहित्य को सबसे महत्वपूर्ण देन आचार्य रामचंद्र की है। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का पहला क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया और साहित्यिक आलोचना की पद्धति विकसित की। चिंतन और विश्लेषणपरक निबंधकार के रूप में भी उनका स्थान शीर्ष पर है। शुक्ल जी के पिताजी पंडित चंद्रबली शुक्ल मिर्जापुर में सदर कानूनगो के पद पर कार्यरत थे। नौ वर्ष की आयु में शुक्ल जी की माता का देहांत हो गया था। मातृ सुख के अभाव के साथ-साथ विमाता से मिलने वाले दुख ने उनके व्यक्तित्व को अल्पायु में ही परिपक्व बना दिया। साहित्य में रूझान होने की वजह से वकालत की पढ.ाई छोड. कर लेखनी की तरफ रूख कर लिया। शुक्ल जी के गद्रय- साहित्य की भाषा खड.ी बोली है, लेकिन उसके दो रूप हैं। क्लिष्ट और जटिल जो गंभीर विषयों के वर्णन तथा आलोचनात्मक निबंधों के भाषा का क्लिष्ट रूप मिलता है। इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता होती है। दूसरी भाषा है सरल और व्यवहारिक रूप यह शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंधों में देखने को मिलता है। इसमें हिंदी के प्रचलित शब्दों को ही अधिक ग्रहण किया गया है। और ग्रामीण बोलचाल की भाषा को भी काफी तवाजो दी गई है। साथ ही साथ मुहाबरों का भी प्रयोग किया गया है। शुक्ल जी हिंदी के पहले समीक्षक हैं जिन्होंने वैविध्यपूर्ण जीवन के ताने बाने में गुंफित काव्य के गहरे और व्यापक लक्ष्यों का साक्षात्कार करने का वास्तविक प्रयत्न किया। उन्होंने भाव या रस को काव्य की आत्मा माना है। पर उनके विचार से काव्य का अंतिम लक्ष्य आनंद नहीं बल्कि विभिन्न भावों के परिष्कार, प्रसार और सामंजस्य द्वारा लोकमंगल की प्रतिष्ठा की है। उनकी दृष्टि से महान काव्य वह है जिससे जीवन की क्रियाशीलता उजागर हुई हो। जायसी , सूर और तुलसी की समीक्षाओं द्वारा शुक्ल जी ने व्यावहारिक आलोचना का उच्च प्रतिमान प्रस्तुत किया। इनमें शुक्ल जी की काव्यमर्मज्ञता, जीवनविवेक, विद्ववत्ता और विश्लेषणक्षमता का असाधारण प्रमाण मिलता है। शुक्ल जी का विवेचनात्मक गद्रय अपने सर्वोत्तम रूप में पारदर्शी है। उनमें गहन विचारों को सुसंत करने की असामान्य क्षमता है। और उसमें यथातथ्यता और संक्षिप्तता का विशिष्ट गुण पाया जाता है। अर्थात उनके विवेचनात्मक गद्रय ने हिंदी गद्रय पर व्यापक प्रभाव डाला है। उनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास‘ एक गौरवग्रंथ है। साहित्यिक धाराओं का सार्थक निरूपण तथा कवियों की विशेषताबोधक समीक्षा इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं। शुक्ल जी की कविताओं में उनके प्रकृतिप्रेम और सावधान सामाजिक भावों द्वारा उनका देशानुराग व्यंजित है। इनके अनुवादग्रंथ भाषा पर इनके सहज आधिपत्य के साक्षी हैं। उन्होंने जिस क्षेत्र में भी कार्य किया उसपर उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड.ी। काव्य में रहस्यवाद निबंध पर इन्हें हिंदुस्तानी अकादमी से 500रूपए एवं चिंतामणि पर हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 1200 रूपये का मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार प्राप्त हुआ। हिंदी के क्षेत्र में हिंदी साहित्य की अनोखी विधियां देने वाले रामचंद्र शुक्ल जी का स्थान बहुत क्ंचा है।
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