काव्य भाषा की निर्मात्री महादेवी वर्मा


बीसवीं शताब्दी में स्त्री लेखन को एक मुकम्मल पहचान दिलाने वाली महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में एक ऐसी सितारा हैं, जो किसी परिचय की मोहताज नहीं है। इन्होंने अपना जीवन और लेखन अपनी शर्तो पर किया और अपने लेखन के बल पर हिंदी साहित्य में अमिट पहचान बनाई। इनका जन्म फर्रूखाबाद के एक संपन्न परिवार में हुआ था। इंदौर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद महादेवी जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए किया। उसके बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना कर वहो प्रधानाचार्य के रूप में कार्यरत रही। साथ ही साथ मासिक पत्रिका चांद का अवैतनिक संपादन भी किया। महादेवी वर्मा पीड.ा की गायिका के रूप में सुप्रसिद्ध छायावादी कवयित्री होने के साथ एक उत्कृष्ट गद्य-लेखिका भी थी। गुलाबराय जैसे शीर्षस्तरीय गद्यकार ने महादेवी जी के बारे में लिखा है-’मैं ग़द्य में महादेवी का लोहा मानता हूं।‘ महादेवी जी का हिंदी भाषा से बहुत ही आत्मीय संबंध था। पाठशाला में हिंदी के अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में वे समस्यापूर्ति भी करने लगीं। खड.ीबोली की कविता से प्रभावित होकर वे खड.ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखने लगीं। महादेवी जी की लेखनी ने ऐसी धार पकड.ी की वे अपनी मां से सुनी एक करूण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। उसके कुछ ही दिनों के पश्चात उनकी रचनाएं तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होने लगीं। महादेवी जी को काव्य संग्रह यामा के लिए 1982ई. में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मरणोपरांत भारत सरकार ने इन्हें पद्य विभूषण से भी सम्मानित किया। इतना ही नहीं 1991 में, भारत सरकार ने इनके सम्मान में, कवि जयशंकर प्रसाद के साथ इनका 2रू. का युगल टिकट भी चलाया था।  महादेवी जी ने इलाहाबाद में ही रहकर साहित्य साधना की और आधुनिक काव्य जगत में अविस्मरणीय योगदान दिया। इनके काव्य में उपस्थित विरह वेदना अपनी भावनात्मक गहनता के लिए अमूल्य मानी जाती है और इन्हीं कारणों से इन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। भावुकता और शब्दों में वेदना महादेवी जी के काव्य की पहचान है। नारी उत्थान के युग में महादेवी जी ने न केवल साहित्य सृजन के माध्यम से अपितु नारी कल्याण संबंधी अनेक संस्थाओं को जन्म दे कर इस दिशा में बहुत ही महत्वर्पूण योगदान दिया है। महादेवी जी की भाषा स्वच्छ, मधुर, संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त परिमार्जित खड.ी बोली है। इनका तीक्ष्ण व्यंग öदय में व्याकुलता उत्पन्न कर देने वाला है मुहावरों और लाकोक्तियों के प्रयोग ने भाषा के सौंद्रर्य को और भी बढ.ा दिया है। भाषा में सर्वत्र कविता की सरसता और तन्मयता है। महादेवी जी के गीत अपने विशिष्ट रचाव और संगीतात्मकता के कारण अत्यंत आर्कषक  हैं। उनमें चित्रमयता और बिंबर्ण्मिता का चित्रण है। इन्होंने नए बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से प्रगति की अभिव्यक्ति - शक्ति का नया विकास किया है।  हिंदी में ऐसे साहित्कार बहुत हर कम हुए  हैं जिन्होंने शब्दों और चित्रों दोनों ही तरीकों से भावभिव्यक्ति की हो। महादेवी जी उनमें से एक हैं। महादेवी जी की दीपशिखा का पहला संस्करण 1942 में छपा था। इस संस्करण की खास बात यह थी कि इनमें छपी कविताएं महादेवी की हस्तलिखित हैं और हर पृष्ठ, हर कविता में उन्हीं के बनाए रेखाचित्रों की पृष्ठभूमि है। यह संस्करण लियो तकनीक से छापी गई थीं। महादेवी जी का काव्य अनूभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवियित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियां प्राय अज्ञात प्रिय के मौन समर्पण के रूप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड.ावों के समान है। जिसमें प्रेम एक प्रमुख तत्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड.ा हुआ है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि महादेवी अपनी काव्य भाषा की निर्मात्री स्वयं ही हैं। 

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Milan Tomic

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