अंग्रेजों के अत्याचार
और अमानवीय व्यवहारों
से त्रस्त भारतीय
जनता एकजुट हो
कर इससे छुटकारा
पाने के लिए
कृतसंकल्प हो
गई। आजादी दिलवाने
के लिए देश
के अनेक वीरों
ने अपने प्राणों
की आहुति दी
और इस तरह
15 अगस्त 1947 को हम
आजाद हो गए।
आजादी सभी को
प्यारी होती है
चाहे वो पशु-पक्षी हो या
फिर मनुष्य सभी
अपने तरीके से
खुली आबो हवा
में सांस लेना
चाहते हैं। सुभाषचंद्र
बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर
आजाद ने क्रांति
की आग फैलाई
और अपने प्राणों
की आहुति दी।
सरदार वल्लभभाई पटेल,
गांधीजी, नेहरूजी ने सत्य,
अहिंसा और बिना
हथियारों की लड.mई लड.ी। सत्याग्रह
आंदोलन किए, लाठियां
खाई, कई बार
जेल गए और
अंग्रेजों को हमारा
देश छोड. कर
जाने पर मजबूर
कर दिया। और
इस तरह 15 अगस्त
हमारे लिए स्वर्णिम
दिन बना, और
हम आजाद हुए।
हिंदी साहित्य के
परिदृश्य में अगर
हम देखें तो,
आजादी के बाद
से अब तक
का यानी 73 साल
का समय काफी
उथल पुथल भरा
समय रहा है।
विभाजन का दंश
आजादी के बाद
भी हमें कचोटते
रहे हैं। आजादी
के इतने सालों
में दुनिया बेहद
बदली है। आजादी
मिली तो उसे
संभालने में हमें
वक्त लगा। आजादी
के साथ आजादी
का मोहभंग कम
नहीं रहा। रचनाओं
में यह मोहभंग
साठ के दशक
तक छाया रहा।
नेहरू ने भारत
के आर्थिक औद्रयोगिक
विकास का जो
स्वप्न बुना वह
नेहरूवियन माडल के
रूप में आलोचना
के केंद्र में
रहा जहां एक
कवि आक्रोश में
आकर यह पुछता
है, कि आजादी
क्या र्सिफ तीन
थके हुए रंगों
का नाम है
जिसे एक पहिया
ढोता है या
इसका कोई और
मतलब भी होता
है। आजादी के
समय में बड.े -बड़े
लेखक मौजूद थे।
अज्ञेय, यशपाल, अमृतलाल नागर,
भगवतीचरण वर्मा, दिनकर , बच्चन,
धर्मवीर भारती, केदारनाथ अग्रवाल,
नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध, जैनेन्द्र,
साहनी आदि जिनके
साहित्य ने भारतीय
समाज को अपने
समय के वैविध्रयपूर्ण यर्थाथ से जोड.ने का
यतन किया। कविता
भी अंर्तमन की
खामोश उधेड.बुन
न होकर समय
से सवालों में
बदलती गई। रधुवीर
सहाय, राजकमल चैधरी
, धूमिल, कुंवर नारायण और
कैलाश वाजपेयी से
होती हुई यह
रचनाशीलता केदारनाथ सिंह, विनोदकुमार,
देवीप्रसाद मिश्र तक हिंदी
कविता को अपने
नुकीले कथ्य ,शिल्प और
मुहाबरों से संपन्न
करती रही है।
यह वह दौर
था जब यशपाल
के झूठा सच
की आंच बहुतों
को विचलित करती
थी। अज्ञेय का
नदी के द्धीप
चर्चा का विषय
बना तो दिनकर
की उर्वशी और
संस्कृति के चार
अध्याय ने साहित्य
रसिकों को बहुत
ही आंदोलित किया।
मुक्तिबोध इस दौर
के सबसे जटिल
कवि के रूप
में उभरे जिनकी
रचना चांद का
मुंह टेढ.ा
है और धूमिल
की रचना संसद
से सड.क
तक ने कविता
की दिशा ही
बदल दी। भीष्म
साहनी के उपन्यास
तमस और राही
मासूम रजा के
आधा गांव ने
विभाजन के दंश
को बहुत ही
मार्मिक ढंग से
उकेरा। छठे व
सातवें दशक के
मोहभंग के बाद
आपातकाल, भूमंडलीयकरण, सांप्रदयिकता के उभार
भ्रष्टाचार व काले
धन और राजनीति
में धर्म के
संक्रमण ने तेजी
से साहित्य को
प्रभावित किया है।
कांग्रेस के दशकों
शासन के बाद
गैरकांग्रेसवाद की तेज
होती मुहिम और
जातीय- धार्मिक ध्रुवीकरण ने
क्षेत्रीय दलों और
सांप्रदायिक ताकतों को उभारने
की जमीन तैयार
की। साहित्य कृतियों
पर इन सबका
खासा असर पड.ा है।
लेखकों ने अकाल,
भुखमरी, संबंधों और मनुष्य
में आते कुरूतियों
को खूबी से
कृतियों में उकेरा
है। सात की
दशकों में फणीश्वर
नाथ रेणु के
उपन्यास मैला आंचल
में पूर्णिया के
मेरीगंज को केंद्र
बनाकर स्वतंत्रयोत्त भारत
के पूरब के
पिछड.े बिहार
के गांव की
अंचल तस्वीर पेश
की है। रेणु
ने कहा है
इस उपन्यास में
फूल भी हैं,
धूल भी हैं,
गुलाब भी है
और कीचड. भी
है। मैं किसी
से दामन बचा
कर नहीं निकल
पाया। अर्थात उपन्यास
हमें सामाजिक शोषण-
चक्रों में फंसी
हुई जनता की
पीड.ाओं और
संघर्षों से जोड.ता है।
रागदरबारी के कथाकार
श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यास
के लिए उन्हें
1970 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार
से सम्मानित किया
गया। इस उपन्यास
में आदि से
अंत तक वाग्य
की धारावाहिता कायम
रहती है। न
किस्सागोअई बाधित होती है
न लेखक का
वाग्य और वट
विराम लेता है।
आज के संदभ
में हमें यह
बात याद रखना
चाहिए कि हम
लोकतंत्र में रहते
हैं और अगर
लोकतंत्र में सभी
को बराबर भागीदारी
और एक दूसरे
का साथ न
मिले तो सच्चा
जनतंत्र नहीं कहा
जा सकता है।
इस साल 15 अगस्त
को भारतीय स्वतंत्रता
के अध्याय में
एक और साल
जुड. जायेगा। इसलिए
हम सब को
मिल कर भारत
को और मजबूत
बनाना है, ताकि
कोई भी बाहर
वाला इसकी एकता
और अखंडता को
तोड. न सके।
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