यज्ञ, वेद मंत्रों का उच्चारण, साधना और ध्यान के माध्यम से वातावरण में दिव्यता की अनुभूति प्रदान करने वाला महाशिवरात्रि का त्योहार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन लोग शिवमय हो कर औलौकिक सुख का आनंद लेते हैं। शिवरात्रि पुरूष और प्रकृति के मिलन का प्रतीक है। सृष्टि के सृजन के लिए पुरूष और प्रकृति का मिलन होना अतिआवश्यक है। यहां पुरूष से तात्पर्य भगवान शिव और प्रकृति का प्रतीक माता पार्वति है। भगवान शिव हर जगह व्याप्त हैं । सत्य, सौंद्रर्य और अनंतता के प्रतीक शिव हमारी आत्मा के सार हैं, हमारे होने का प्रतीक हैं शिव। इसलिए भगवान शिव की पूजा करने से हमारे भीतर दिव्य गुणों की अनुभूति होती है। प्रत्येक वर्ष में कुछ खास समय और दिन होते हैं जो आध्यात्मिक उन्नति और ध्यान करने के लिए बहुत अनुकूल माने जाते हैं और महाशिवरात्रि उन्हीं में से एक है। जब हम ध्यान लगाते हैं तो उस दौरान एक ऐसा समय आता है जहां हम अनंत में प्रवेश कर जाते हैं, यह वो अनंत है जहां प्रेम भी है और शून्यता भी। और यह अनुभव हमें जिस चेतना के स्तर पर ले जाता है वही शिव है । कहा जा सकता है कि अनंता के परे ही शिव हैं। जगत का सृजन करने वाले भगवान शिव जगत कल्याण के लिए समुद्र मंथन से निकले विष को अपने कंठ में समाहित कर अपने क्पर हावी नहीं होने दिया। यहां पर भगवान शिव ने समस्त मानव जाति को यह सीख दी है कि हमें अपने मन की सारी बुराईयों को अपने क्पर हावी नहीं होने देना चाहिए। बल्कि उन बुराईयों का सामना कर उसे अपनी जिंदगी से दूर कर देना चाहिए। यह कहना अनायोक्ति नहीं होगी कि भगवान शिव का समस्त जीवन मनुष्यों के जीवन के लिए एक मैनेजमेंट का पाठ है। जिसे अगर व्यक्ति अपनी जिंदगी में उतार ले, तो समस्त जीवन ही उसके लिए आदर्श और सरल हो जायेगा।
शक्ति और शिव का मिलन ही महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वति का विवाह हुआ था। आदर्श दाम्पत्य जीवन की बात की जाये तो शिव और पार्वति का जीवन एक उदाहरण है। समस्त मानव समाज के लिए भगवान शिव और पार्वति का जीवन प्रेरणादायक है। शिव के मन में माता पार्वति और माता पार्वति के मन में भगवान शिव के पूज्जनीय है। पुराणों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं कि माता पार्वति ने शिव सम्मान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया तो शिवजी ने भी माता पार्वति के प्रेम और सम्मान में सबकुछ किया। दाम्पतय जीवन में समांजस्य, प्रेम सम्मान और समर्पण शिवजी के जीवन में सहज ही देखने को मिलता है। शिव और पार्वति एक दूसरे के प्रति निष्ठावान और त्यागी हैं। पार्वति का शिवमय हो जाना या शिव का पार्वति में लोप हो जाना उन दोनों के इसी प्रेम के कारण ही उन्हें अर्द्धनारीश्वर भी कहा जाता है। शिव और पार्वति एक दूसरे से अलग तो हो सकते हैं पर अलग होकर न तो सुखी रह सकते र्हैं और न ही संतुष्ट भाव से सृष्टि को सुख दे सकते हैं। शायद इसलिए शिव और पार्वति की जोड.ी को सबसे आदर्श दांपात्य के रूप में पूजा जाता है। आदर्श प्रेम का उदाहरण भी भगवान शिव ने दिया। उन्होंने सती से प्रेम किया और अगले जन्म तक उसे निभाया और उन्हीं को अपनी जीवन संगिनि बनाया। शिवजी ने अपनी पत्नी के प्रति समर्पण और श्रद्धा का जो भाव दर्शया है इसका कोई दूसरा उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है। अपने पति के अपमान को सहन नहीं करते हुए माता सती के दक्ष के यज्ञ में कूद कर अपनी जान दे देती हैं। उसके बाद भगवान शिव पत्नी वियोग में इतने भावुक हो जाते हैं कि वे सब कुछ नष्ट कर सती के शव के साथ वियोग में आकुल व्याकुल हो कर समस्त धरती पर भ्रमण करते रहते हैं। जब भगवान विष्णु के द्वारा माता सती की मृत देह नष्ट हो जाती है तो वे इस सच को स्वीकार कर दुनिया से विरक्त हो कर हिमालय में जाकर समाधि में लीन हो जाते हैं। ये सती के प्रति उनके आगाध प्रेम को दर्शता है। भगवान शिव को यह विश्वास था कि सती पार्वति के रूप में पुःन उनकी जिंदगी में लौटेंगी। तो वहीं पार्वति ने भी शिव को पाने के लिए तपस्या के रूप में समर्पण का एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया । और अपने समपर्ण त्याग और विश्वास के जरिए शिवजी की अर्धांगिनी बनीं। सती के रूप में पार्वति को पाकर शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि शिवजी कितने एकनिष्ठ और अपनी पत्नी की आत्मा से प्रेम करने वाले हैं। शिव और पार्वति दोनों का एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण एक आदर्श दांम्पतय जीवन का उदाहरण है। जो समस्त मानव जाति के लिए प्रेरणादायक है। वर्तमान समय मे शिवरात्रि को धर्म से नहीं बल्कि जीवन के इस पहलू से जोड.कर देखने की आवयश्कता है ताकि सृष्टि में पुरूष और प्रकृति के बीच का संतुलन बना रहे।


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